यह सृष्टि
के आरम्भिक काल
की बात है।
उस समय की जब सृष्टि
का इतिहास एक
क्षण भी पुराना
नहीं था। हम मान सकते
हैं कि कुछ
भूगोल था क्योंकि
उस समय धरा
अपनी आकृति ग्रहण
कर रही थी।
कुछ विज्ञान भी
था जोकि अपने
दो पुत्रों भौतिक
और रसायन के
साथ आया था
और जीव विज्ञान
का जन्म होने
वाला था। न
मनुष्य था न ही आँखें
इसलिए दर्शन भी
नहीं था, समाजशास्त्र
तो खैर क्या
ही होता जब
समाज ही नहीं
था। यह सृष्टि
के आरम्भ का समय था। धीरे – धीरे
समय बीता जीव
का जन्म हुआ
और वहीं से
जीव विज्ञान का
भी। इन सबके
बीच में सृष्टि
के प्रथम क्षण
से प्रत्येक पदार्थ
के प्रत्येक परमाणु
और प्रत्येक परमाणु
के भी प्रत्येक
इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन
में भी कोई
समाया हुआ था
तो वो गणित
था। क्योंकि प्रत्येक
विशाल से विशाल
और सूक्ष्म से
सूक्ष्म कण की
संख्या निश्चित थी
और जहाँ संख्या
वहाँ गणित। वो
समय कुछ ऐसा
था कि गणित
व्याप्त होकर भी
विलुप्त - सा था।
मनुष्य के
जन्म के साथ
ही दर्शन ने
जन्म लिया था।
दर्शन यानि कि
विषयों का पूर्वज।
पूर्वज इसलिए क्योंकि
कहा गया है
कि समस्त विषय
दर्शन से ही
निकले हैं। अब
वो समय भी
आया जब दर्शन
के घर में
लगातार किलकारियाँ गूँजने
लगीं। आरम्भ भाषाओं
से हुआ चित्रात्मक
शैली से लेकर
लिपि तक पहुँचे।
फिर दर्शन के
पुत्र भी आए
जैसे भूगोल आया, मनोविज्ञान आया, समाजशास्त्र आया, विज्ञान आया।
इतिहास, नागरिकशास्त्र और
न जाने कितने
आए। इन सबके
बीच गणित विषय(जिसे
आगे हम केवल गणित
ही कहेंगे।) का
भी जन्म हुआ।
गणित के जन्म
के साथ ही
मानव में एक
नए व्यवहार का
भी उदय हुआ।
ये व्यवहार था
बिना किसी कीटाणु
के चहुलबाजी किए
सिर को खुजाना।
प्राचीनकाल से आज
तक इस व्यवहार
ने अपनी प्रकृति
नहीं बदली है।
जब व्यक्ति दुविधा
में होता है
तो नहाया हुआ
मनुष्य भी सिर
खुजाने लगता है।
पर इस व्यवहार
की उत्पत्ति गणित
के कारण ही
हुई थी।
गणित में बचपन से ही बड़ा सेवाभाव था। कभी ये बड़े भैय्या इतिहास के पास चला जाता था और कहता था कि मेरे योग्य कोई सेवा? तो इतिहास कह देता था कि मैं तुम पर अधिक कृपा नहीं कर सकता बस दिनांक के समय तुम्हें बुला लिया करूँगा। भूगोल के पास गया तो उसने कहा कि बस माप के समय ही अपने पास रख सकता हूँ। गणित ने संस्कृत से आग्रह किया - “ दीदी भूगोल भैय्या कह रहे हैं कि कभी - कभी बुलाऊँगा। इतिहास भैय्या तो मुझे बहुत कम जगह दे रहे हैं। आप ही कुछ करो न। आपसे तो मैं बहुत सारी जगह लूँगा। ”
विषयों में
संस्कृत वो बड़ी
बहन थी जो
सबको दुलार करती
थी। उसने बड़े
प्यार से गणित
को पुचकारा और कहा
– “ मेरे
दो बच्चे हैं
गद्य और पद्य।
गद्य तो अपनी
मन के अधीन
है जिधर उसका
मन चलता है।
उधर ही चला
जाता है। पर
पद्य बहुत आज्ञाकारी
है। मैं पद्य
से कह दूँगी
कि वो तुम्हारे
साथ मित्रता कर ले।
”
तभी से
पद्य ने मात्राओं
में गिनती को
अनिवार्य कर दिया
और सुंदर कविता
के लिए मात्राज्ञान
का महत्त्व बढ़
गया। गणित वहाँ
से प्रसन्नचित्त होकर
चला गया। उसी
दिन टहलते हुए
उसे एक कोने
में कोई बड़े
गम्भीर व्यक्तित्त्व का
बच्चा टहलते हुए
दिखा। गणित उसके
पास जाकर नटखटपने
में नकल में
टहलने लगा। गम्भीर
बच्चा झुंझला गया और उसने
कहा – “ क्या
है? क्यों नकल
बना रहे हो? ”
गणित ने कहा
- “ मुझे
लगा तुम टहलकर
किसी खजाने के
बारे में सोच
रहे हो। मैंने
सोचा कि हो
सकता है कि
इस प्रकार से टहलने में
कोई खजाना मुझे
भी मिल जाए। ”
गम्भीर बच्चे
ने कहा - “ खजाना नहीं
मैं तो इससे
भी ऊपर की
सोच रहा हूँ।
खजाना तो कुछ
ही दिन में समाप्त हो
जाता है पर
मैं जो सोच
रहा हूँ उससे
मानव जीवन बहुत
ही सुगम हो
जाएगा। ”
गणित ने कहा
- “ वाह!
ये तो बहुत
ही अच्छी बात
है तब तो
मैं भी आपकी
सहायता करूँगा। बताओ
क्या करूँ और
हाँ नाम भी
तो बताओ अपना। ”
गम्भीर बच्चे
ने कहा - “ तुम अभी
बच्चे हो जाकर
कहीं खेलो मुझे
बहुत काम करना
है और हाँ
मेरा नाम विज्ञान
है। ”
गणित ने कहा
- “ अच्छा
तुम हो विज्ञान।
दर्शन बापू कह
रहे थे कि
एक यही संतान
है मेरी जो
दिन भर बाहर
घूमती रहती है।
पता नहीं क्या
ढूंढती रहती है।
वैसे विज्ञान अपन
दोनों भाई तो
हैं ही पर
तुम्हारी व्यस्तता में
हम कभी मिले ही नहीं।
इतिहास भैय्या, समाजशास्त्र
भैय्या ने तो
आपको देखा ही
नहीं। उधर संस्कृत
दीदी आपका स्मरण
कर रही थीं। पर तुम किसी से मिलने ही नहीं जाते हो। लगता
है तुमको रिश्तेदारी
कम रास आती
है तो क्यों
न हम मित्र
बन जाएँ। ”
विज्ञान ने कहा
- “ मुझे
मित्र बनाने का समय नहीं
है। अभी मुझे
दूरी मापने की
युक्ति ढूंढ़नी है तो मशीनें
भी बनानी हैं
और तो और
मनुष्य को स्वस्थ
कैसे रखा जाए
ये भी जानना
है। तुम जाओ
और अकेला छोड़
दो मुझे। ”
गणित ने कहा
- “ बच्चू
गणित नाम है
मेरा, पीछा छोड़ना
मेरा काम नहीं।
मैं तो सबके
साथ घूमता हूँ
और मुझसे पीछा
छुड़ाओगे भी तो
कैसे? दूरी मापने
की युक्ति ढूंढ
रहे हो पर
दूरी कितनी हो
ये तो मेरे
बिना नहीं पता
कर पाओगे न
और मशीनें बनाने
में कौन चीज
कितनी लगनी है
ये भी मेरे
बिना जान नहीं
पाओगे। तुम्हारा तो
भला मेरे बिना
होना ही न
है। तो अगर
कुछ करना चाहते
हो तो बढ़ाओ
हाथ। ”
विज्ञान को
गणित की बात
कुछ - कुछ समझ आने
लगी थी। अचानक
से उसके मन
में विचार कौंधा
कि कहीं ऐसा
तो नहीं कि
मेरी सारी खोजें
गणित के अभाव
में ही अधूरी
हों। फिर गणित
कौन - सा मुझे हानि
पहुँचा रहा है।
ये तो मेरी सहायता ही
करना चाहता है।
ये सब सोचकर
विज्ञान ने गणित
की ओर हाथ
बढ़ा दिया।
अब विज्ञान
और गणित दोनों
मित्र थे।
क्रमशः
लेखक
प्रांजल सक्सेना