सोमवार, 14 अगस्त 2023

सुन बन्दे

सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन बन्दे,

सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन बन्दे।


हम भारत के रहने वाले हैं,

हम भारतवासी कहलाते हैं।


आजादी के नये तराने, 

हम झूम-झूमकर गाते हैं।


पसीना नहीं खून बहाकर,

पायी हमने आजादी है।


अहिंसा है पहचान हमारी, 

और पहनते हम खादी हैं।


सब धर्मों का सम्मान यहाँ, 

हम सबको नमन करते हैं।


अपनी-अपनी उपलब्धि से हम,

देश को चमन करते हैं।


देशभक्ति का भी तुझमें हो एक गुन बन्दे,

सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन बन्दे,

सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन बन्दे।


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देखो-देखो 15 अगस्त को,

आजादी हमने पायी है।


गांधी से ले अशफाक तक,

सबकी कहानी समायी है।


क्रांतिकारियों की कहानी,

हम एक-दूजे को सुनाते हैं।


बलिदानों की गाथा को,

हम झूम-झूमकर गाते हैं।


हिमालय से है शान हमारी,

हम उस पर झण्डा फहराते हैं।


है माटी से पहचान हमारी,

हम इसका तिलक लगाते हैं।


बैलों के घुँघरू में भी तो है एक धुन बन्दे,

सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन बन्दे,

सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन बन्दे।


होली, दीवाली के त्योहार से,

दुनिया में हम जाने जाते हैं।


ईद, क्रिसमस और लोहड़ी भी,

हम मिल-जुलकर मनाते हैं। 


चाँद है देखो कितना अपना,

हर धर्म से उसका नाता है।


रहीम और रसखान के भजन,

हर कृष्णभक्त गुनगुनाता है।


सिक्ख जब करवाते लंगर,

किसी से धर्म न पूछा जाता है।


ईद और होली के उत्सव पर,

हिन्दू को मुस्लिम गले लगाता है।


तिरंगे के रंगों से आज तू खेल फागुन बन्दे,

सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन बन्दे,

सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन बन्दे।


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अपने भारत के झण्डे को,

ऊँचे से ऊँचा लहराना है।


तू है प्यारे देश का गौरव,

देश को आगे ले जाना है।


एकता की राह पर चलकर,

तुझे देश का मान रखना है।


कोई कितना भी चाहे पर,

लालच का फल न चखना है।


एक बगिया के फूल हैं हम,

हम भारत को महकाते हैं।


जो टूटा हो दिल किसी का,

तो उसको गले लगाते हैं।


नफरत की आंधी में तू प्यार की राह को चुन बन्दे,

सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन बन्दे,

सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन बन्दे।


धरती को मानकर मैय्या,

किसान अन्न उपजाते हैं।


चलो उनका साथ निभाने,

हम सब आगे आते हैं।


देश की रक्षा करने को कुछ,

सीमाओं पर लड़ने जाते हैं।


उनको भी है नमन हमारा,

वो देश का मान बढ़ाते हैं।


छूने को निकले हैं हम चाँद,

पूरे गगन को अपना बनाना है।


हम भारत माँ के बच्चे हैं,

उनके आगे शीश नवाना है।


बस भारत की उन्नति के सपनों को तू बुन बन्दे,

सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन बन्दे,

सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन बन्दे।


रचनाकार
प्रांजल सक्सेना 
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शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

शौचालय और पुरुष दिवस

 शौचालय में बैठा पुरुष अक्सर ये सोचता है,

बदहजमी वाला क्या खाया था उसे खोजता है।


हींगोली, पुदीन हरा, ईनो में कौन है श्रेष्ठ,

हर दावत के बाद अध्ययन करता है यथेष्ट।


न छोले-भटूरे बिन सुबह है, न चावल बिना रात।

पानी भी दो घण्टे बाद पिएँ, ये भला क्या हुई बात।


ये चाउमीन, बर्गर, चाटवाले वाले यूँ भूखे मर जाएँगे,

गर काम की भागमभाग में हम इन्हें न खाएँगे।


मोमोज, समोसे का आखिर क्या है कुसूर,

आउटिंग के समय भला कैसे रहें इनसे दूर।


चाहें गैस का उत्पादन करता रहे हमारा शरीर,

वो खाना हम न छोड़ेंगे जिसमें होता खमीर।


क्या हुआ जो हो जाता है गड़बड़ हमारा पेट,

शौचालय झेल लेगा हमारे 'स्टूलों' का रेट। 


जब कमरे के दस और रसोई के बीस चक्कर लगते हैं,

तो ये शौचालय क्या दो बार का भी हक नहीं रखते हैं।


सुबह के बाद दिन भर शौचालय में क्यों न हो रौनक,

गरिष्ठ खाना खाकर पुरुष बनते शौचालय के पूरक।


इन महिलाओं से क्या होगा जो पल-पल टोकती हैं,

ये मत खाओ, वो मत पियो कहकर रोकती हैं।


इनकी चले तो हो जाएँ शौचालय बिल्कुल बेकार,

हम पुरुष ही इसे दिन भर रखते हैं गुलजार।


शौचालय की सीट भी हमें देख खिल जाती है,

हमारे पीले उद्गारों में उसे खुशी मिल जाती है।


अजी शौचालय और पुरुष एक-दूसरे पर हैं निर्भर,

न सुनो नसीहतें किसी की खाओ थाली भर-भर।


शौचालय और पुरुष दिवस इसीलिए एक दिन मनाते हैं,

शौचालय की असली रौनक तो पुरुष ही कहलाते हैं।


रचनाकार
प्रांजल सक्सेना 
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शनिवार, 1 फ़रवरी 2020

सिक्का निगल गयी

वो घर की लाडली थी। वो पैदा तो गरीब घर में हुई थी। लेकिन सौभाग्यशाली थी कि उसके घरवाले उसकी हर माँग पूरी करते थे। वो जो खिलौना माँगती उसे लाकर देते। जो खाने को माँगती उसे खिलाते। लेकिन इन खर्चों के कारण महीने की बचत एक रुपए का सिक्का थी। उसके पिताजी कैसे भी करके महीने में वो एक रुपए का सिक्का बचाते थे और उसी लड़की को यह कहकर दे देते थे कि इसे गुल्लक में रख लो। वो लड़की धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। जैसे-जैसे बड़ी हुई वैसे-वैसे माँग भी बढ़ती गयी। कभी ये चाहिए, कभी वो। उसके पिता ये माँगें पूरी करते-करते मेहनत के बोझ तले दबे जा रहे थे। एक दिन पिता ने उससे कहा   ये लो बेटी ये सिक्का गुल्लक में डाल दो।
पुत्री ने कहा  पिताजी ये सिक्का मैं गुल्लक में नहीं डालूँगी। मुझे अपने लिए थोड़े और रुपए चाहिए।
पिता ने कहा  पर बेटी अब देने को कुछ भी नहीं है। बस यही बचत है। इसे गुल्लक में डाल दो।
पुत्री ने कहा  पिताजी मैं कुछ नहीं जानती। मुझे चाहिए तो चाहिए।
पिता ने असमर्थता जता दी  बेटी मैं इससे अधिक मेहनत नहीं कर सकता। सब चीजें महँगी हो रही हैं। जैसे-तैसे महीने में ये एक सिक्का बचा पाता हूँ। अब इस सिक्के में तुम्हारी जरूरत की चीजें आएँगी नहीं तो गुल्लक में ही डाल दो।
माँगें पूरी होने से लड़की जिद्दी हो चुकी थी। उसे केवल अपनी इच्छाओं से मतलब था। जब उसने देखा कि माँग पूरी नहीं हो रही तो उसने कहा  जब मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं होंगी तो आपकी भी पूरी नहीं होने दूँगी।
कहकर उसने वो एक रुपए का सिक्का निगल लिया। पिताजी ये देखकर बहुत घबरा गए। उन्होंने कहा  बेटी तुमने भावावेश में ये क्या कर डाला? एक तो मेरी बचत को निगल गयीं। दूजे अपने ही स्वास्थ्य को हानि पहुँचा दी। बिना ये सोचे कि इसके क्या दुष्परिणाम होंगे।
लेकिन बेटी सिक्का निगल चुकी थी और सिक्का शायद उसकी साँस नली में फँस गया था। उसे बेचैनी होने लगी। घबराए पिता ने तुरन्त डॉक्टर को फोन किया। जब तक डॉक्टर आया पिता परेशान रहे और कैसे भी सिक्का उगलवाने का प्रयास करते रहे। लेकिन हल न निकला। जब डॉक्टर आया तो उसने लड़की को सिर के बल खड़ा किया। कभी पीठ से ठोंका, सिक्का नहीं निकल रहा था। अंततः उन्होंने उसके हलक में हाथ डाला और लड़की ने एक जोरदार उल्टी की। उल्टी के साथ सिक्का भी बाहर आ चुका था। सिक्का बाहर आते ही पिता की जान में जान आयी कि बेटी बच जाएगी।
डॉक्टर सफलतापूर्वक सिक्का बाहर निकालने की कला से फूला नहीं समा रहा था। लेकिन डॉक्टर कोई संत तो था नहीं। वो पैसे के लिए काम करता था। उसने अपनी फीस माँगी। फीस सुनकर पिता के होश उड़ गए। उसके पास इतने पैसे ही नहीं थे। अंततः उसने गुल्लक तोड़ी और उसके सारे पैसे डॉक्टर को दे दिए। लेकिन ये पैसे डॉक्टर की फीस से कम थे। डॉक्टर ने बची हुई फीस का कर्जा उतारने के लिए मनमाने ब्याज पर किश्त बाँध दी।

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डॉक्टर के जाने के बाद पिता ने कहा  बेटी देखा तुमने अपनी नासमझी से कितना नुकसान किया। मैंने तुम्हें आज समोसा खिलाया था, मटर-पनीर खिलाया था और महँगे कपड़े पहनाए थे, तुमने मेकअप भी किया था। लेकिन बचत का सिक्का निगलने से तुम्हें उल्टी करानी पड़ी। तुम्हारा खाया सारा खाना निकल गया, तुम्हारे कपड़े और मेकअप खराब हो गए। शारीरिक और मानसिक कष्ट हुआ अलग। अभी भी निढाल होकर बिस्तर पर पड़ी हो। ऊपर से अब तक की बचत और डॉक्टर को देनी पड़ी। कर्जे की किश्त भरनी पड़ेगी सो अलग। आगे से ध्यान रखना बचत के साथ कभी नादानी न करना। उसकी जगह गुल्लक होती है पेट नहीं।
लड़की ने इस बात का कोई उत्तर न दिया। वो चुपचाप लेटी रही और मन ही मन अपने पिता को कोसती रही क्योंकि उसने इस घटना को इस प्रकार से समझा था कि एक रुपए के सिक्के के लिए उसके पिता ने उसे उल्टी कराकर कपड़े, मेकअप खराब किए और बिस्तर पकड़वा दिया। समय बढ़ता गया। लड़की ने पुनः सिक्का तो नहीं निगला लेकिन मन ही मन कुढ़ती रही। 
फिर एक ऐसा दिन आया जब उसे एक बड़ा पद मिला। उसने पाया कि इस दुनिया में उसके पिता जैसे कई लोग हैं। जो महीने में एक सिक्का बचाते हैं और गुल्लक में डालते हैं। उसे ये कतई सहन नहीं हुआ कि लोग उसे फिजूलखर्ची के लिए पैसे देने के बजाय गुल्लक में डालते हैं। इसलिए उसने उन सबके बचत के सिक्के इकट्ठे किए, उन्हें गलाकर एक बड़ा सा सिक्का बनवाया और उस सिक्के को निगल गयी। अब लोगों में एक ही चर्चा है कि इसकी नासमझी अभी भी गयी नहीं। सिक्का तो ये निगल गयी है न जाने कब और कितनी उल्टी करेगी कि सब खाया - पिया, रंग - रोगन किया हुआ निकल जाएगा। उससे अधिक चिंता तो उस डॉक्टर की है जो गुल्लक के पैसे भी ले जाएगा और कर्जे का बोझ भी दे जाएगा। लेकिन लड़की को चिंता नहीं है वो तो इसे उपलब्धि मानकर डंका पीट रही है कि मैं 

सिक्का निगल गयी

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बुधवार, 29 जनवरी 2020

ज्ञान

     हम  जब  भी  किसी  भी  विषय  के  सम्बंध  में  ज्ञान  प्राप्त  करना  चाहते  हैं  तो  हमारे  पास  स्रोत  के  रूप  में  होते  हैं  ढेरों  किताबों  के  नाम।  वर्तमान  तकनीकी  युग  में  इंटरनेट  पर  बिखरी  सामग्री,  कुछ  ई-बुक्स  आदि  मिल  सकती  हैं।  यदि  आध्यात्मिक  ज्ञान  की  बात  करें  तब  तो  ज्ञान  के  स्रोतों  की  कमी  ही  नहीं  है।  करोड़ों  पुस्तकों  से  लेकर  हर  गली  में  आपको  ज्ञान  देने  वाला  मिल  जाएगा।  लेकिन  मुद्दा  ये  है  कि  क्या  इससे  आपको  संतुष्टि  मिलेगी?  मेरे  विचार  से  नहीं।  यदि  किसी  के  दिए  हुए  उत्तर  से  आपको  संतुष्टि  मिल  जाती  है  और  आप  उसे  आँख  बंद  करके  मान  लेते  हैं  कि  अमुक  व्यक्ति  ने  कहा  है  या  अमुक  पुस्तक  में  लिखा  है  तो  सही  ही  होगा  तब  समझ  लीजिए  कि  या  तो  आप  अपने  प्रश्न  की  गहराई  में  उतरे  ही  नहीं  थे  अथवा  आप  उत्तर  के  स्रोत  पर  अंधविश्वास  करते  हैं।  दोनों  ही  स्थितियाँ  आपके  ज्ञान  की  यात्रा  को  रोक  देती  हैं।
     वास्तव  में  ज्ञान  तो  एक  अविरल  धारा  है।  जहाँ  उत्तर  पाकर  ठहरने  का  कोई  अर्थ नहीं  होता  अपितु  अनवरत  यात्रा  चलती  रहती  है।  ज्ञान  का  अर्थ  यह  कतई  नहीं  हो  कि  छपा  हुआ  मिल  गया  तो  सही  है।  अब  इससे  आगे  कुछ  सोचना  ही  नहीं  है।  इसे  ही  सच  मानकर  आगे  बढ़  जाना  है।  छपा  हुआ  उत्तर  पढ़  लिया  या  किसी  का  बताया  हुआ  उत्तर  सही  मान  लिया  तो  इस  घटना  में  उत्तर  आपको  मिला  ही  नहीं।  ये  सारे  माध्यम  तो  आपको  ये  बताते  हैं  कि  अमुक  व्यक्ति  ने  अमुक  परिस्थिति  में  प्रश्न  का  ये  उत्तर  माना।  ये  उत्तर  उसके  लिए  सही  हो  सकता  है,   बहुतों  के  लिए  सही  हो  सकता  है  लेकिन  आपके  लिए  सही  नहीं  होगा।  ज्ञान  किसी  चीज  को  जानना  मात्र  ही  नहीं  है।  जानना  प्रथम  सीढ़ी  हो  सकती  है  परंतु  लक्ष्य  नहीं।  ज्ञान  तो  वो  है  जो  आपकी  अंतरात्मा  से  निकलता  है।  स्रोतों  से  मिला  उत्तर  तो  सूचना  मात्र  है।  ज्ञान  तो  वो  होगा  जो  सूचना  पर  चिंतन  से  मिलेगा।
     बड़े  बुजुर्ग  कहते  आए  हैं  कि  सुनने  से  नहीं  गुनने  से  होगा  और  यह  अक्षरशः  सत्य  है।  किसी  भी  सूचना  को  जब  तक  आप  अपनी  कसौटी  पर  नहीं  कसते  तब  तक  ज्ञान  नहीं  बनेगा।  हर  सूचना  को  कसौटी  पर  कसना  आवश्यक  है  क्योंकि  सूचना  गलत  भी  हो  सकती  है  और  सही  भी।  अब  प्रश्न  ये  उठता  है  कि  अगर  गलत  सूचना  के  आधार  पर  चिंतन  और  निष्कर्ष  को  सत्य  मान  लिया  जाए  तो  क्या  प्राप्त  उत्पाद  ज्ञान  होगा।  बिल्कुल  होगा  क्योंकि  जब  तक  आपको  बोध  नहीं  है  कि  सूचना  ही  गलत  थी  तब  तक  ज्ञान  सही  ही  होगा।  जब  बोध  हो  जाएगा  तब  आपके  सामने  एक  तैयार  निष्कर्ष  होगा  कि  इस  गलत  सूचना  से  ये  निष्कर्ष  निकला  है।  तब  अगले  चिंतन  से  निष्कर्ष  इससे  भिन्न  ही  आना  चाहिए। 
     
     कोई  आपको  किसी  सार्वभौमिक  सत्य  की  सूचना  दे  कि  दो  और  दो  चार  होते  हैं  तब  भी  बिना  चिंतन  उसे  स्वीकारना  नहीं।  अपनी  कसौटी  पर  परखना  अवश्य,  संदेह  अवश्य  करना  कि  क्या  वास्तव  में  दो  और  दो  चार  ही  होते  हैं?  कहीं  ऐसा  तो  नहीं  कि  वर्षों  से  कुछ  गलत  चीज  को  लोग  अपनाए  बैठे  हों।  उसके  बाद  आप  भले  ही  इस  निष्कर्ष  पर  पहुँचें  कि  दो  और  दो  चार  होते  हैं।  लेकिन  इस  बात  को  अपने  चिंतन  से  गुजारकर  ही  सत्य  मानें।  ये  न  सोचें  कि  उत्तर  तो  वही  था  ये  चिंतन  तो  व्यर्थ  था,  यूँ  ही  समय  व्यर्थ  हुआ।  नहीं  व्यर्थ  कुछ  भी  नहीं  हुआ।  जैसे  बाजार  से  नमक  की  थैली  उधार  लाते  हैं  तब  भी  नमक  वही  है  और  जब  मोल  लाते  हैं  तब  भी  नमक  वही  है।  वैसा  ही  यहाँ  है  पहले  आपने  मूल्य  नहीं  चुकाया  था  इसलिए  मन  में  पीड़ा  थी।  अब  मूल्य  चुका  दिया  है  तो  नमक  पर  आपका  अधिकार  है।  बस  चिंतन  से  यही  मूल्य  चुकाना  है।
     
      अपने  इतिहास  में  जाएँगे  तो  पाएँगे  कि  बड़े – बड़े  विद्वानों,  संतों,  महात्माओं  ने  भी  अपने  से  बड़े – बड़े  विद्वानों,  संतों,  महात्माओं  की  शिक्षाओं  को  आँख  बंद  करके  नहीं  माना।  यदि  ऐसा  होता  तो  आज  चार  वेदों  से  आगे  हम  बढ़  नहीं  पाते।  न  कोई  नया  सृजन  होता  न  ही  चिंतन।  बस  रटे  जा  रहे  होते  और  बिना  चिंतन  बस  ठूँठ  बनकर  रह  जाते।  महावीर  स्वामी  ने  किसी  अंधभक्ति  में  न  पड़कर  अपने  अंदर  ज्ञान  खोजा,  बुद्ध  के  सामने  पुराने  ज्ञान  को  रटने  का  अवसर  था।  न  रटते  तो  महावीर  का  ही  अनुसरण  कर  लेते  लेकिन  उन्होंने  भी  अपने  अंदर  ही  खोजा।  उसके  बाद  जो  हुए  उन  सबने  भी  मात्र  महावीर  और  बुद्ध  को  ही  सत्य  न  माना।  कुछ  उनसे  पुराने  स्रोतों  पर  विश्वास  करते  रहे  कुछ  उनसे  भी  पुरानों  पर।  अंधभक्ति  न  करके  अपने  मार्ग  खोजना  ही  उनकी  उपलब्धि  थी  और  आपकी  भी  वही  होगी। 
     किसी  विद्वान  या  पुस्तक  की  बातों  पर  अविश्वास  करने  से  कोई  पाप  नहीं  होता।  हाँ  मुड़कर  उस  ओर  न  देखने  से  आपकी  अज्ञानता  झलकती  है।  अविश्वास  जमकर  कीजिए  लेकिन  जानने  के  बाद  ही  अविश्वास  कीजिए।  किसी  पुस्तक  को  बंद  करके  अविश्वास  तो  नफरत  कहलायी।  पूरा  पढ़िए,  जानिए  और  फिर  मन  न  माने  तब  अविश्वास  कीजिए।  तभी  अविश्वास  की  सार्थकता  है। 
     कई  बार  मन  में  प्रश्न  उठता  है  कि  इतने  परम  विद्वान  एकमत  क्यों  नहीं  थे?  सबके  पृथक – पृथक  मार्ग  क्यों  थे?  अब  इनमें  से  सही  कौन – सा  है?  एक  बार  पता  चल  जाए  तो  बाकियों  को  तिलांजलि  दें  और  उनके  मार्ग  पर  चला  जाए।  तो  ध्यान  रहे  कि  मत  भिन्नता  रहेगी,  सदैव  रहेगी।  जब  आप  स्वयं  को  जान  जाएँगे  तो  एक  पृथक  ही  मत  बन  जाएगा  क्योंकि  जिस  सत्य  के  पीछे  भाग  रहे  हो  उसका  निर्माण  न  कभी  हुआ  है  न  ही  कभी  होगा।  वो  तो  परिवर्तनशील  है।  

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     अब  प्रश्न  ये  उठ  जाता  है  कि  फिर  कैसे  पता  चले  कि  हमें  जो  ज्ञान  हुआ  है  वो  सही  है  भी  कि  नहीं।  उसका  एक  ही  उत्तर  है  और  वो  ये  कि  ये  ज्ञान  यदि  आपको  संतुष्ट  करता  है।  यदि  यह  ज्ञान  कल्याणकारी  है  तो  निश्चित  ही  ज्ञान  है।  भले  ही  वो  और  मतों  से  पूर्णतया  भिन्न  है।  भले  ही  वो  किसी  पुस्तक  में  नहीं  लिखा  लेकिन  उससे  संतुष्टि  और  कल्याण  के  उद्देश्य  पूर्ण  हो  रहे  हैं  तो  वो  ज्ञान  है।
     एक  बार  भान  हो  जाए  कि  ज्ञान  हो  चुका  है  तब  भी  रूकना  नहीं  है  अपितु  चिंतन  में  लगे  रहना  है।  अपने  ही  ज्ञान  को  मथते  रहना  है।  क्या  पता  कि  कुछ  छूट  गया  हो  या  कुछ  नया  निकल  आए  जो  पहले  से  भी  अधिक  आनन्द  की  अनुभूति  कराए। 
     तो  जाइए  सूचनाएँ  समेटिए  और  और  ज्ञान  की  भट्टी  में  पकाना  आरम्भ  कीजिए।

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मंगलवार, 28 जनवरी 2020

चौरंगा क्यों नहीं?

      महानपुर में पहले पंचायत चुनाव के बाद असली लोकतंत्र की झलक दिखनी थी। इसलिए नारद की सलाह पर लोकतंत्र के सभी कायदे भी महानपुरियों ने अपनाने आरम्भ कर दिए थे। अबकी 26 जनवरी को रेवती दादा के अहाते में जहाँ गाँव की चौपाल बैठती है वहाँ तिरंगा फहराना तय हुआ। तिरंगे में डोरी बाँधकर डंडे के शीर्ष तक पहुँचा दिया गया। पौने दस हो चुके थे और झण्डा फहरने में पन्द्रह मिनट का समय था। नारद ने पनकी से पूछा – “पनकी जी, तिरंगा ऊपर ठीक से बँधा है चिंता न कीजिए, नीचे गिरेगा नहीं।” 
     पनकी ने तिरंगे की ओर से आँखें हटाए बिना ही कहा – “वो तो पता है नारद जी। हम तो इस दुविधा में फँसे हैं कि सूरज जैसे केसरिया, बादलों जैसे सफेद और वनस्पति जैसे हरे रंग के साथ जब पानी जैसा नीला चक्र भी अपने झण्डे में है तो इसे तिरंगा क्यों कहते हैं? चौरंगा क्यों नहीं?” 
     नारद ने हँसकर कहा – “वो इसलिए पनकी जी ताकि जनता – जनार्दन को ये ख्याल रहे कि संसद हो या विधानसभा प्रधान पद पर वही बैठेगा जिसका बहुमत ज्यादा है। अब माना कि नीला रंग भी तिरंगे में है लेकिन इतना कम है कि उसे नगण्य मानकर चौरंगे के बजाय तिरंगा ही नाम दे दिया गया। बल्कि चौरंगा के बजाय तिरंगा शब्द तो इस बात का प्रतीक मालूम पड़ता है कि जिस समुदाय के वोट सबसे कम हों उसके विकास की ओर सबसे कम ध्यान दिया जाए।” 
     पनकी ने कहा – “लेकिन नारद भैया ये चक्र तो तिरंगे में एकलौती आकृति है। इसके रंग को तो महत्व देना ही चाहिए था।” 
     नारद ने कहा – “ओहो! पनकी जी, लोकतंत्र में होना तो बहुत कुछ चाहिए लेकिन हो कहाँ पाता है। तिरंगा नाम रखकर जनता को ये भी तो बताना था कि मुट्ठी भर आदमी सही बात भी कहें फिर भी उसकी गिनती न करो। तीन रंगों की अधिकता में एक रंग की अनदेखी लोकतंत्र में अल्पमत वालों पर बहुमत वालों की दबाइश का उदाहरण मात्र है।” 
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     पनकी ने निराशा भरे स्वर में कहा – “हमने किताबों में पढ़ा है कि अशोक चक्र चौबीस घण्टे गतिमान रहने की शिक्षा देता है। ऐसी महान शिक्षा देने वाले चक्र के रंग को तो गिना ही जाना चाहिए था।” 
     समझदार आदमी को समझाना और भी मुश्किल होता है। नारद इस बात से खीझा, उसने कहा – “पनकी जी, यही तो होने वाले नेता के नाते आपको समझना चाहिए कि लोकतंत्र में बुद्धिजीवी होने से कुछ नहीं होता। यहाँ संख्याबल वाले ही राज करते हैं। जिसका अधिक क्षेत्र में प्रभाव है समझो वही अगला माननीय है।” 
     
     पनकी ने कहा – “वो तो ठीक है नारद जी लेकिन संविधान में अनेकों संशोधन भी तो हुए हैं। तो क्यों नहीं अब एक और संशोधन करके ये बात जोड़ दी जाती है कि आज से अपने झण्डे को तिरंगा नहीं चौरंगा कहा जाएगा ताकि सभी रंगों को समान सम्मान प्राप्त हो।” 
     नारद ने कहा – “वो इसलिए पनकी जी ताकि अपने देश की जनता को हमेशा ये ध्यान रहे कि अपने देश में बहुत से काम किए जा सकते हैं। लेकिन किए इसलिए नहीं जाते क्योंकि सालों से चलते हुए चलन को बदलने की इच्छाशक्ति है ही नहीं। आम जनता जब किसी जरूरी मुद्दे को उठाए तो उसे समझा दिया जाए कि अभी तो अमुक जरूरी काम ही नहीं हुआ तो इसे कैसे करें। कुल मिलाकर एक जरूरी काम का न हो पाना बताकर कई जरूरी काम टाल दिए जाते हैं।” 
     तभी ननकू ने कहा – “सभई लोग सावधान की मुद्रा में आ जाइए, रेवती दादा झण्डा फहराने वाले हैं।” 
     झण्डा फहरने के बाद पनकी ने कहा – “इसका मतलब है कि देश की आम जनता के हाथ में देश में जरूरी बदलाव लाने का माद्दा नहीं है।” 
      उसी समय ननकू ने मिष्टान्न वितरण के तहत थोड़ी – थोड़ी बूँदी पनकी और नारद के हाथ में रख दी। नारद ने कहा – “आम जनता के हाथ में है ये मुट्ठी भर मिठाई जो साल में दो – चार बार मिल जाती है और उसे लगता है कि सब कुछ ठीक है जैसा चल रहा है चलने दो। कहीं ये भी छिन गयी तो।” 
     बूँदी चिबलाते हुए पनकी के मन से चौरंगे का ख्याल जाता रहा। 
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मंगलवार, 14 जनवरी 2020

अथश्री महानपुर गप्प कथा-कहानी खिचड़ी की

ई साल पुरानी बात है। लेकिन उतनी भी पुरानी नहीं है जब समाचार पत्र नहीं छपते थे। उतनी पुरानी तो है जब सोशल मीडिया नहीं था लेकिन उतनी पुरानी कतई नहीं है जब पहिए का आविष्कार नहीं हुआ था। अब कब की है और कब की नहीं है इसमें समय मत खराब करिए बल्कि बात का मजा लीजिए। हाँ तो बात ये है कि एक दिन महानपुर गाँव के पनकी और बनवारी बोरों में अनाज भरकर बैलगाड़ियों से लेकर सवेरे सवेरे शहर में बेचने जा रहे थे। जाते जाते रास्ते में रामगंगा नदी पड़ी। नदी पर वो भीड़ थी, वो भीड़ थी मानो आसमान में तारे गिनना आसान हो और यहाँ आए लोगों को गिनना कठिन। भयंकर ठण्ड थी लेकिन लोग नहाने के लिए पानी में कूदे जा रहे थे।
बैलगाड़ियों की चाल धीमी हो चुकी थी क्योंकि उनके मालिक रामगंगा पर ये दृश्य देखने में व्यस्त थे। इतनी भीड़ बनवारी को हजम नहीं हो रही थी और उसके मुँह से प्रश्न फूट ही पड़ा पनकी, एक बात तो बतावो ऐता आदमी नदी किनारे काहे इकट्ठा हुआ है कि दुई आँखें कम पड़ रही हैं इन्हें एक साथ देखने में। न काहू का बियाह लग रहा है न ही मातम तो काहे इत्ता रेला है?”
पनकी ने कहा रेला नहीं भैय्या मेला है मेला। अब अपने गाँव में तो कोई धर्म है नहीं लेकिन देश दुनिया में सब कोई न कोई धर्म मानते हैं। आज मकर संक्रांति का त्योहार है। आज के दिन लोग दान पुण्य को अच्छा मानते हैं और स्नान करते हैं।
बनवारी ने कहा अच्छा जे बात है। वैसे पनकी हम लोग भोर ही भोर में अनाज बेचने आ गए हैं। मंडी भी न खुली होगी तो तनिक इन लोगन को पास में जाकर देख लें। मेला देखकर रुका न जा रहा।
पनकी ने कहा चल तो सकते हैं भैय्या लेकिन इन बैलगाड़ियों का क्या करें? नीचे ढलान है और बैलगाड़ियाँ उतर नहीं सकतीं। यहाँ बैलगाड़ियाँ उतारीं तो समझ लो अलटी पलटी हो जाएगी।
बनवारी ने कहा अरे! तो बैलगाड़ी लेकर चलने को कौन कह रहा है? ऐसे ही चलते हैं। इन्हें हियाँ बाँध देते हैं।
मन तो पनकी का भी हो रहा था मेला देखने का। इसलिए दोनों ने पीपल के पेड़ में बैलगाड़ियाँ बाँधी और ढलान से नीचे मेला देखने उतर गए। चारों ओर का दृश्य देखकर बनवारी प्रफुल्लित हो उठा और बोला वाह! मजा आ गया पनकी नदिया किनारे ठण्डी ठण्डी हवा चल रही है। लोगबाग कितने प्रसन्न हैं और बच्चन को देखो कैसे खुशी से खेल रहे हैं।
पनकी ने कहा हाँ भैय्या ई देखो हलवाईयों की कैसी मौज निकल पड़ी है कोई जलेबी बना रहा है तो कोई पकौड़ी। छोला भटूरा भी बन रहा है और समोसा भी। कुल मिलाकर मेले से सबको खुशी मिल रही है। अच्छा हुआ बैलगाड़ियों को बाँधकर देखने आ गए मन हर्षित हो गया।
तभी एक आदमी चिल्लाता हुआ और भागता हुआ नहीं भागता हुआ और चिल्लाता हुआ या यूँ कहें कि एकसाथ भागते और चिल्लाते हुए जा रहा था कि भागो भागो, बैलवा पागल हो गए हैं।
पनकी और बनवारी ने देखा कि चार बैल बड़ी तेजी से भागे चले आ रहे हैं। सब इधर उधर भाग रहे थे। वे दोनों भी बचे। इधर चार बैलों ने मेले में तूफान मचा दिया। बैल ठेलों और दुकानों में टक्कर मारे जा रहे थे। जिन जलेबियों को पेट में जाना था वो जमीन में गिरी पड़ी थीं जिन पकौड़ियों को मुँह का स्वाद चटपटा करना था वो स्वयं धूल चाट रही थीं। गोलगप्पे भी भच्चा हो चुके थे।
जब पनकी और बनवारी सँभले तो पनकी ने कहा – दैय्या रे! कितना नुकसान हो गया? देखो न बनवारी भैय्या बच्चे कैसे बिलख रहे हैं? बेचारे जिस खाने पर लार टपका रहे थे वो खाना ही गिर गया।
बनवारी ने कहा वो तो ठीक है लेकिन जे बैल कुछ देखे दिखाए से क्यों लग रहे थे?”
तभी वहाँ खड़े एक आदमी ने कहा अरे! हुआँ ऊपर दो बैलगाड़ी बँधी हुई थीं कोई नशेड़ी तापन खातिर उधर आग लगाया जिससे बैल रस्सी तोड़ भागे।
पनकी और बनवारी ने बैलगाड़ियों की ओर देखा तो पाया कि उनकी बैलगाड़ियाँ अब बैलविहीनगाड़ियाँ बन चुकी थीं और ढलान के कारण नीचे लुढ़की जा रही थीं। पनकी ने कहा बनवारी भैय्या, बैल देखे दिखाए इसलिए लग रहे थे क्योंकि अपने ही बैल थे और गाड़ियाँ देखो कैसे नीचे लुढ़की जा रही हैं।
दोनों बैलविहीनगाड़ियों की ओर भागे लेकिन होनी को कौन रोक सकता था। वो तेजी से लुढ़कते हुए आ रही थीं। नीचे दोनों आकर एक दूसरे से बुरी तरह टकरायीं और उनके बोरे खुल गए। बनवारी के कद जैसे बड़े बड़े चावल और पनकी के कद सी छोटी छोटी दाल आपस में मिल गए।
बनवारी ने कहा हो गया सत्यानाश। अब क्या होगा पनकी? बोरे तो खुले ही खुले साथ ही दाल और चावल बिना पके ही एक दूसरे में मिल गया।
पनकी ने कहा वो तो है बनवारी भैय्या लेकिन हमें तो इन मासूम लोगों पर बड़ी दया आ रही है। न जाने कितनी दूर दूर से आए होंगे। किसी पर कुछ खाने को होगा भी कि नहीं? छोटा छोटा बच्चा लोग रो रहे हैं। ऊपर से दुकानदारों का नुकसान अलग हुआ। आग कौनू जलाया हो लेकिन नुकसान करने वाले बैल तो अपने ही थे न?  

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बनवारी ने कहा सही कह रहे हो पनकी लेकिन अब इस बेमहानी के दाग से पीछा कैसे छुड़ाएँ? रेवती दादा को पता चलेगा तो कहेंगे कि महानपुर का नाम डुबा आए।
पनकी ने सांत्वना देते हुए कहा चिंता न करो बनवारी भैय्या हमें महानता की एक बात सूझ रही है।
बनवारी ने कहा जल्दी उगलो पनकी।
पनकी ने आवाज लगाकर रोते हुए ठेलेवालों और दुकानदारों को एकत्र किया और बुलंद आवाज में कहा – भाईयों हम हैं महानपुर के पनकी और हमरे साथ हैं बनवारी भैय्या। अभई जिन बैलों के कारण अफरा-तफरी मची थी ऊ हम दोनन के ही थे।
इतना सुनते ही लोग आक्रोशित हो गए, एक बोला अरे! तो ठीक से बाँधना चाहिए था न। देखो कित्ता नुकसान कर दिए हैं।
दूजा बोला हमको तो ऊ कम और तुम जियादा बैल मालूम पड़ते हो अईसन बेवकूफी कोई करता है क्या?”
बनवारी ने पनकी से कहा हम समझ रिए हैं कि हम लोगन के कारण आप लोगन को परेशानी हुई है। इसलिए महानता को साक्षी मानकर हम आप लोगन से क्षमा माँगते हैं और इन दाल चावल को आपको समर्पित करते हैं।
एक हलवाई बोला पर इन दाल चावल का करेंगे क्या? ये तो एक दूसरे में ऐसे मिले जा रहे हैं जैसे पेड़ पर बेल। इन्हें अलग करते करते तो शाम गुजर जाएगी।
पनकी ने कहा हम जानत हैं भैय्या कि बहुत हई बुरी तरह से मिल गए हैं। लेकिन का कर सकत हैं। पकने के बाद तो वैसे भी दाल चावल मिलाने पड़ते हैं। अब जे कच्चे ही मिल गए हैं तो आप लोग ही कछु युक्ति निकाली और इनको जोड़-गट्ठके कछु बनाओ।
अब हलवाईयों में आपस में कुछ मंत्रणा हुई कोई कह रहा था कि कुछ नहीं बन सकता तो किसी ने कहा कि कुछ ऐसा बनाना पड़ेगा जो तुरंत बन जाए। ग्राहक भूखे हैं और खाने को एकदम तैयार हैं। तो कोई बोला कच्चे ही बाँट देते हैं। तभी एक रचनात्मक हलवाई बोला खाने का माल भले ही गिर गया हो लेकिन आग जलाने का सामान सबका ठीक है। मेरी समझ में तो ये आ रहा है कि बर्तन में घी नमक डालो और चावल की तरह इन्हें आँच पर पकने दो। जितनी देर में ये बनेगा उतनी देर में लोग भूख से इतने बेहाल हो चुके होंगे कि हपककर खाएँगे।
इस बात पर सभी ने हामी भरी। फिर जिसका जितना नुकसान हुआ था उसी अनुपात में दाल चावल का मिश्रण ले गया और फटाफट बर्तन को आँच दिखा दी। पनकी और बनवारी ये सब देखकर बड़े संशय में थे कि हलवाईयों ने अगर बेकार खाना बनाया तो पिटना पड़ेगा हमें। खैर वो समय भी आया जब खाना तैयार था। अब स्नान करके लौटे लोगों की भीड़ ने भोजन में हुए इस अभूतपूर्व प्रयोग को चखा और चखते ही इसके मुरीद हो गए। साधारण से दाल और चावल का मिश्रण था लेकिन उसमें घुली महानता की भावना से ये मिश्रण उन्हें इतना अच्छा लग रहा था मानो छप्पन पकवानों में भी इतना स्वाद न हो। क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी चटखारे लेकर खा रहे थे।
बनवारी ने पनकी के कंधे पर हाथ रखकर कहा बच गए पनकी, शुक्र है कि तुम साथ थे। वर्ना आज तो महानपुर का नाम ही खराब हो जाता। क्या दिमाग चलाया तुमने और ऐसा अनूठा पकवान बनवा दिया। लेकिन इस महान पकवान को कहेंगे क्या?”   
पनकी ने कहा भैय्या इस पकवान को खाकर सबके चेहरे खिल गए हैं, सब टखारे लेकर खा रहे हैं और सबको बड़ीअच्छी लग रही है इसलिए इस नए पकवान का सबसे सही नाम रहेगा

 खिचड़ी
...और इस प्रकार मकर संक्रांति पर खिचड़ी बनने की परम्परा का आरम्भ हुआ।




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